Friday 18 November 2011

ना प्राच्य की हुई, ना ही पाश्चात्य मे रम पाई...............

मै अवंतिका(एक मिडिल क्लास लड़की जिसने आभाव शायद ही देखें), उच्च-शिक्षा प्राप्त प्रोफेसनल माता-पिता (जो ८० के दशक की उस संतती की नुमाइंदगी करते है जिन्होंने शिक्षा तो इंडिया मे ली किन्तु धन, संपदा और ऐश्वर्य के निमित पश्चिम को अग्रसर हुएं) की संतान हूँ. मैंने बचपन से पश्चिम को देखा किन्तु जाने क्यूँ माँ ने पूरब का व्योम(आज तय-शुदा तौर पर यह कहने से गुरेज नही करूंगी कि यह एक खोखली मानसिकता है) हमेशा ही जेहन मे डालने की कोशिश की(*शायद सफल भी रहीं). विगत एक वर्ष से मै भारत मे हूँ, और कही से भी खुश नही, क्यूँ-कि यथार्थ से परे भारतीय सभ्यता और उसके अपरिमित सीमांकन के चिन्ह लुप्त-प्राय है.
शायद मै अपनी प्रासंगिकता भी तय नही कर पाई............
अपने उपरोक्त निष्कर्ष पर मै यूं ही नही पहूची.
मैंने २ माह पहले एक स्वयं-सेवी संस्था को ज्वाइन किया, इसके निमित मुझे कई बार देर रात तक काम के सिलसिले मे बाहर रहना पड़ता है. पिता ने ५८ वर्ष के एक बुजुर्ग(वर्मा जी, मुझे हमेशा अपनी पुत्री समान, यूं कहें पुत्री से बढ़कर माना और प्यार दिया) को मेरा ड्राईवर(हलाकि बहुधा मै स्वयं ड्राइव करती हूँ) बना दिया. आज ये पूर्णतः सपष्ट है की इसके पीछे अपनी बेटी की सुरक्षा भावना ज्यादा बलवती थी.
स्नेहा मेरी दोस्त है, मेरे साथ ही पटना विश्व-विद्यालय से पी.एच.डी. कर रही है. वह बताती है कि आज भी घर से निकलते हुए माँ उसे सलवार-कमीज के साथ तरतीब से दुपट्टा लेने की हिदायत देती है. आखिर वो क्यूँ सशंकित है?
ठगनी, हाँ यही प्रचलित नाम है उसका, बच्चे पगली भी कहते है. जाने कब, कैसे, कहाँ से आई कोई नही जानता? बहुत गन्दी दिखती है, ऐसा लगता है महीनो से नही नहाई. आज जब खाने के लिए रोटी मांगने आई तो मैने कहा, साफ़-सुथरी रहा करो. बरबस उसने निगाहें उठाई और कहा, 'फिर साफ़ रहने का मौका कौन देगा?"
ओह! ये पगली भी मुझसे ज्यादा समझदार निकली. यथार्थ के ज्यादा करीब............
तीन अलग-अलग लड़किया बिल्कुल भिन्न माहौल मे एक सी समस्या से ग्रस्त है, फिर कैसा सभ्य प्राच्य?????????
तभी कह रही हूँ, "मै अपनी प्रासंगिकता तय नही कर पाई.............."